गया के सम्बोधि मंदिर और विष्णु पद मंदिर की यात्रा

 बिहार राज्य का दूसरा बड़ा शहर गया है। सम्बोधि मंदिर और विष्णु पद मंदिर यहाँ के प्रसिद्ध मंदिरों में से एक है। कुछ दिन पहले इन दोनों मंदिरों को बारिकियों से देखने का मौका मिला। मै इन मंदिरों को देखा और अध्ययन किया। सम्बोधि मंदिर में देश विदेश के पर्यटक और बौद्ध धर्मालंबी के सुव्यवस्थित और मनमोहक भीड़ थी। स्वस्थ वातावरण और शांतिपूर्ण माहौल मन को खुशनुमा बना रहा था तो वहीं विष्णु पद मंदिर में गंदगी और दुर्गंधमय वातावरण में किचकिच करती अव्यवस्थित भीड़ मन को विचलित कर रहा था। सम्बोधि मंदिर का मनमोहक दृश्य आत्मा को शांति प्रदान कर रहा था। बौद्ध भिक्षुओं का मुसकुराता चेहरा मन को प्रफुल्लित कर रहा था। तो वहीं विष्णु पद मंदिर में लोगों की आक्रोशित भीड़ मन को क्षुब्ध कर रहा था। पंडा की दादागीरी चरम पर थी। जहाँ कहीं भी पहुंचता पंडा का एक समुह घेर लेता था। कुछ मंत्र बुदबुदा कर टीका लगाता और फिर दक्षिणा के लिये परेशान करने लगता। दक्षिणा नहीं देने पर अशब्द भाषा का प्रयोग करता। मंदिर का कर्कश और दुर्गंधमय वातावरण में चाहकर भी दस मिनट बैठा नहीं जा सकता था। वहीं सम्बोधि के प्रांगण में कैसे घंटों बीत गया था ये पता ही नहीं चला था।


 कमावेश हिन्दू धर्म के सभी मंदिरों में यह दृश्य देखा जा सकता है। उत्तर भारत के मंदिरों में पंडित और पुजारियों का दादागिरी कुछ ज्यादा ही है। ये लोंग मंदिर को अय्याशी का अड्डा बना दिया है। धर्म की आड में गलत काम करते है। हिंदू धर्म को बदनाम करने में इन्हीं लोगों का हाथ है।

  

सम्बोधि और विष्णुपद मंदिरों के ऐतिहासिक तथ्यों को भी खंगालने की कोशिश की। करीब 500 ई॰पू. में गौतम बुद्ध फाल्गु नदी के तट पर पहुंचे और बोधि पीपल पेड़ के नीचे तपस्या करने बैठे थे। तीन दिन और तीन रात के तपस्या के बाद उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई थी, जिसके बाद से वे बुद्ध के नाम से जाने गए। इसके बाद उन्होंने वहां छः हफ्ते अलग अलग जगहों पर ध्यान करते हुए बिताये थे और फिर सारनाथ जा कर धर्म का प्रचार शुरू किये थे। बुद्ध के अनुयायिओं ने बाद में उस जगह पर जाना शुरू कर दिया। ज्ञान प्राप्ति के 250 वर्ष बाद सम्राट अशोक ने यहाँ विशाल मंदिर का निर्माण करवाया था तभी से यह मंदिर बौद्धो का आकर्षन केन्द्र बना हुआ है। अशोक के इन कार्यों की चर्चा उनके कई शिलालेख और आदेश पात्र मे मिलता है। जबकि विष्णुपद का ऐतिहासिक साक्ष्य काल्पनिक और पुराणों पर आधारित है। 


एक बार गयासुर नाम का एक दानव था, जिसने बहुत घोर तपस्या की थी और भगवान विष्णु से वरदान माँगा कि जो भी उसे देखे उसे मोक्ष की प्राप्ति हो जाय। क्योकि मोक्ष जीवन में केवल एक बार प्राप्त होता है जिसके लिए धर्मी होना बहुत आवश्यक है, और इससे वे मोक्ष को आसानी से प्राप्त कर लेंगा। गयासुर को ऐसे वरदान मिलने से अनैतिक व्यक्ति भी मोक्ष की प्राप्ति करने लगे थे।  भगवान विष्णु अपने ही वरदान से चिंतित होने लगे थे।  ऐसे व्यक्ति को मोक्ष मे जाने से रोकने के लिये भगवान विष्णु गयासुर से कहा की तुम पृथ्वी के नीचे चले जाओ और उन्होंने अपना दाहिना पैर असुर के सिर पर रख दिया था। गयासुर को पृथ्वी की सतह के नीचे धकेलने के लिये भगवान विष्णु के चरणों के निशान सतह पर रह गए जो आज भी इस मंदिर में मौजूद है।

      विष्णुपद मंदिर का यह ऐतिहासिक कहानी पूरी तरह मनगढ़ंत और काल्पनिक लगता है। पुराणों के इसी तथ्य के आधार पर इंदौर की शासिका देवी अहिल्या बाई होल्कर ने सं 1787 में इस मंदिर का निर्माण करवायी। जबकि सच यह है कि असुर या दानव नाम का कोई भी प्राणी इस पृथ्वी पर नहीं था यहाँ के मूल निवासी को ही हिन्दू धर्म ग्रंथों में दानव और असूर कह गया है। जो सरासर काल्पनिक और मनगढत प्रतीत होती है।मेरे इस बलोग कुछ कंटरपंथी लोगो को अच्छा नहीं लगा होगा। पर सच है। हिंंदू धर्म के नाम जो कर्म कांड और अंधविश्वास हैै वह ठीक नहीं हैै। 

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

रचनात्मकता का महत्व